Mrityubhoj ek kuprtha

🕉मृत्युभोज कुप्रथा है🕉

*मृत्युभोज का तमाशा*

लेकिन इधर तो परिजन के बिछुड़ने के साथ एक और दर्द जुड़ जाता है। मृत्युभोज के लिए 2 लाख  से 5 लाख रुपये तक का साधारण इन्तज़ाम करने का दर्द। ऐसा नहीं करो तो समाज में इज्जत नहीं बचे। क्या गजब पैमाने बनाये हैं, हमने इज्जत के? अपने धर्म को खराब करके, परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना। कहीं-कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम-शराब, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू जैसी नशीली चीजों की मनुहार भी करनी पड़ती है। परम्परा की आड़ में समाज में नशाखोरी, धीमाजहर व केंसर घोल रहे है। बड़े-बड़े नेता और अफसर इस अफीम का आनन्द लेकर कानून का खुला मजाक उड़ाते अकसर देखे भी जाते हैं। कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है। कपड़े, केवल दिखाने के, पहनने लायक नहीं। बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस प्रदेश में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी, उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बच्चे कैसे पढ़ेंगे?
राजस्थान में नकली घी-शक्कर-तेल-आटे-कपड़े-अफीम का यह खेल लगभग 10 से 15000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष में बैठता है। नरेगा में सरकार कितना पैसा परिवारों तक पहुँचा पायेगी। उससे तो ज्यादा खर्च मृत्युभोज पर ही हो जाता है। इस खेल को प्रायोजित करने में भू-माफिया, ब्याज-माफिया और मिलावट-माफिया संगठित होकर आगे आते हैं। अपने-अपने समाज के ठेकेदार बनकर ये माफिया, मृत्युभोज की कुरीति को आगे बढ़ाते हैं। इसे पक्का करने के लिए उनके स्वयं के परिजनों की मौत पर बढ़-चढ़ कर खर्च करते हैं, ताकि मध्यम और निम्र वर्ग इसे आवश्यक परम्परा मानकर चलता रहे।

इस समस्या की व्याख्या सिर्फ अपने हिसाब से नहीं। बल्कि समस्त राजस्थान के दृष्टिकोण से करें।

कुप्रथा को रोकने के व्यवहारिक उपाय सुझाएँ।

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